कविताओं के बारे में दो शब्द
ये कविताएं दिखती मासूम सी हैं, पर गहरे वार करती हैं। पढ़ने वाले को बेचैन कर देती हैं। सोचने और सिहरने पर मजबूर कर देती हैं। अपनी कविताओं में कवि ने जहां एक तरफ जीवन की वास्तविकता को सावधानी से उकेरा है, वहीं दूसरी तरफ जीवन की विद्रूपताओं को भी जस का तस रख दिया है। ये वे कविताएं हैं जो सहज ही पढ़ने वाले के जीवन से जुड़ जाती हैं। ये कविताएं संगीत के उस ताल की तरह हैं जो कभी द्रुत होता है तो कभी विलंबित।
Shakeel Prem उन दुर्लभ कवियों में से एक हैं जिनके जीवन और रचनाओं में आपको कोई फांक नहीं मिलेगी। हम पहली बार पर कवि की कुछ बिल्कुल टटकी कविताएं प्रस्तुत कर रहे हैं। ये उनके यूट्यूब चैनल और उनके फेसबुक एकाउंट से प्रकाशित की गई हैं।
जाति का कोई अस्तित्व नहीं होता।
लेकिन, भारत के लोग आपको देख कर यह सवाल जरूर पूछेंगे कि आप कहां से आ रहे हैं? कहां जा रहे हैं? नाम क्या है? और अंत में आपकी जाति क्या है? दरअसल भारतीय समाज में कुछ छिपे हुए विशेषाधिकार यानी Privilege काम करते हैं। आप क्या कर सकते हैं? क्या नहीं कर सकते? क्या बन सकते हैं? क्या नहीं बन सकते? कितना आगे पहुंच सकते हैं? कितना पीछे रह जाएंगे? क्या प्राप्त कर लेंगे? क्या प्राप्त नहीं कर पाएंगे?
आपके अस्तित्व का निर्धारण उन छिपे हुए Privilege यानी विशेषाधिकारों के आधार पर तय होता है। भारतीय समाज में कुछ जातियों, कुछ वर्गों, कुछ वर्णों और कुछ समुदायों के लिए जो भेदभाव भरी स्थिति बना दी गई है उस पर ध्यान दिए जाने और उसे बदलने की ज़रूरत है। अपने विशेष अधिकारों को पहचानना और उसके आधार पर होने वाले भेदभाव तथा दूसरों से वह अधिकार छीन लिए जाने की हालत पर हम सबको सवाल उठाना होगा और इस स्थिति को बदलना होगा।
दुनिया जानती है कि वास्तव में जाति जैसी किसी चीज का कोई अस्तित्व नहीं होता।
लेकिन भारत में जब कोई व्यक्ति जाति को ना मानने के रास्ते पर चलता है तो परिवार और समाज उसे बुरा-भला कहते हैं उसका बहिष्कार कर देता है, कई बार उस पर हमले भी किए जाते हैं। हमारा समाज सबसे ज्यादा सत्य से डरता है।
तो आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं शकील प्रेम की भारत की जातिगत समस्या पर लिखी हिन्दी कविता
कौन जात हो भाई? (कविता)
स्कूल में पढ़े थे हम कि जाति न पूछो भाई
बड़े हुए तो सबने पूछा कौन जाति हो भाई?
डर लगता है अब देख कर अपनी ही परछाई
कहीं यह भी न पूछ ले कौन जाति हो भाई?
गंदी बस्ती कूड़ा-करकट और गंदगी का ढेर
इंसान नही हम सब थे बस जिंदगी का ढेर
लाचारी के उस आलम में फैला हुआ था रोग
इलाज बिना ही मर जाते बस्ती के कई लोग
टूटी झोपड, चिथड़े कपड़े, फटी हुई रजाई
कुत्ते, सुअर आकर पूछे कौन जाति हो भाई?
स्कूल में पढ़े थे हम, कि जात न पूछो भाई
बड़े हुए तो सबने पूछा कौन जाति हो भाई?
माँ बीमार थी और पापा मजबूर थे
मैं बेरोजगार तो दादा खेतिहर मजदूर थे
सड़के लंबी मगर आंगन छोटा होता था
छोटी जाति का तो सब कुछ छोटा होता था
बडे लोगों कि बात बड़ी होती थी
परिवार छोटा मगर जाति बड़ी होती थी
मलिकाइन गांव में थी, मालिक रेलवे में थे
बेटी लंदन में थी और बेटे नॉर्वे में थे
जिनके खलिहानों में बाप दादा ने जिंदगी गंवाई
नॉर्वे से आये साहब ने पूछा कौन जाति हो भाई?
स्कूल में पढ़े थे हम, की जात न पूछो भाई
बड़े हुए तो सबने पूछा कौन जाति हो भाई?
मालिक के घर चोरी हुई अंगूठी
और एफआईआर लिखा दी झूठी
मालिक थोड़ा जिद्दी मगर मालकिन नेक थी
मालिक और थानेदार की जाति एक थी
बस्ती में जो नजर आया सब के सब चोर थे
शरीर भले था हट्टा कट्टा जाति से कमजोर थे
थानेदार गुस्से में था और मालिक जज्बात में थे
शाम तक बस्ती के ज्यादातर लोग हवालात में थे
मालकिन कि दया से सबको थाने से छुट्टी मिल गई
मालिकन को अपने घर मे ही खोई अंगूठी मिल गई
यह खबर सुनकर सबकी जान में जान आई
तभी थाने के चौकीदार ने पूछा कौन जाति हो भाई?
स्कूल में पढ़े थे हम, की जाति न पूछो भाई
बड़े हुए तो सबने पूछा कौन जाति हो भाई?
जैसे जैसे चुनाव नजदीक आते थे
मेरी जाति के हालात कुछ ठीक हो जाते थे
भारत की संतान हो जाता था
मैं भी एक इंसान हो जाता था
न्याय समानता कि बातें
सुन-सुन कर हैरान हो जाता था
चुनाव के वक्त, हम आपस मे सब भाई भाई
चुनाव के बाद नेता जी पूछे कौन जाति हो भाई?
स्कूल में पढ़े थे हम, की जात न पूछो भाई
बड़े हुए तो सबने पूछा कौन जाति हो भाई?
दिन गुजरे हालात न बदले
मालिक के जज्बात न बदले
माँ गुजरी और बाप ने दुनिया छोड़ दिया
मालिक के खलिहानों में दादा ने भी दम तोड़ दिया
दादा की नौकरी मुझे मिल गई, बाप का कर्जा भारी था
दो वक्त कि रोटी की खातिर मैं मालिक का आभारी था
जीवन भर की भाग-दौड़ से मालिक को आराम मिला
एक दिन स्वर्ग सिधार गए मालिक को विश्राम मिला
मालिक की आत्मा स्वर्ग में पहुंचे मालकिन ने पूजा करवाई
भोज में पहुँचा तो पंडित ने पूछा, कौन जाति हो भाई?
स्कूल में पढ़े थे हम की जाति न पूछो भाई
बड़े हुए तो सबने पूछा कौन जाति हो भाई?
गांव के दिन बड़े थे और रात छोटी थी
जिम्मेदारियां बड़ी मगर जाति छोटी थी
जिसने चाहा पैर छुआया
मारा-पीटा और मुआया
भगवान ने हमको अछूत बनाया
जाति के भय ने गांव छुड़ाया
शहर गए तो काम मिला और मिली रुसवाई
अगले ही दिन मकान मालिक ने पूछा कौन जाति हो भाई?
स्कूल में पढ़े थे हम कि जात न पूछो भाई!
बड़े हुए तो सबने पूछा कौन जाति हो भाई?
धूप और मेहनत में तपकर मैं बन गया ठेकेदार
कलंक मिटा गरीबी का और मैं हो गया मालदार
उम्र के 35 साल पूरे हो चुके थे
गांव दूर था और रिश्ते भी खो चुके थे
शहर में मेरे पास था गाड़ी, बंगला और कार
बीवी के बिना लेकिन यह सब कुछ था बेकार
दौलत के आगे अब कोई मेरा वर्ण न बूझ पायेगा
अमीर हो गया मैं अब कोई मेरी जाति न पूछ पायेगा
शादी की खातिर अखबार के दफ्तर में फोन लगाया
मैंने अपनी बात कही और उसने मुझको बहुत समझाया
मैंने कहा मुझे आपकी बात समझ न आई
उधर से आवाज आई अरे कौन जाति हो भाई?
स्कूल में पढ़े थे हम, की जात न पूछो भाई
बड़े हुए तो सबने पूछा कौन जाति हो भाई?
ताकतवर खुदा है
और मजहब भी है मजबूत
इंसान मगर है टूटा-फूटा
जाति से मजबूर
खुदा झूठा ईश्वर भी झूठा
जाति झूठी धर्म भी झूठा
कहीं किसी का सिर कटा
तो कहीं किसी का कटा अंगूठा
चमार, दुसाध, डोम और नाई
न जाति छूटी न अक्ल आई
हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई
जातिवाद में बन गये कसाई
जाति और गोत्र के चक्कर में
इंसानियत इन्हें नजर न आई
ऊपर-ऊपर भाईचारा
और मन से बस यही आवाज आई
अरे कौन Jaati हो भाई??
स्कूल में पढ़े थे हम, की Jaati न पूछो भाई
बड़े हुए तो सबने पूछा कौन जाति हो भाई?
डर लगता है अब देख कर अपनी ही परछाई
कहीं यह भी न पूछ ले कौन Jaati हो भाई?
प्यार में जाति ! (कविता)
सात साल हो गए
हमारे Pyar को
चलो अब अपने इस Pyar को
अंजाम तक पहुंचाते है,
शादी के पवित्र बंधन में
दोनों बंध जाते हैं।
लड़के ने
अपनी प्रेयसी की
आँखों में आँखें डाल कर कहा।
प्रेयसी ने
कुछ सोच कर
सनडे को
अपने पापा से मिलने
घर आने को कहा
सनडे की सुबह-सुबह
प्रेमी अपनी प्रेमिका के
दरवाजे पर खड़ा था।
उसने घंटी बजाई
होने वाले ससुर जी ने
दरवाजा खोला
प्रेमी की उम्मीदें
कुलांचे मारती हुई
ससुराल के
सोफे पर बैठ गई
तभी होने वाले
ससुर जी ने
कड़कती आवाज में
होने वाले दामाद से
उसकी जाति पूछ ली
इतना सुनते ही
जैसे
प्रेमी की उम्मीदों में
भरी हुई हवा निकल गई
वो सकपकाया
जुबां जैसे सिल गए थे
फिर भी
Pyar की जिद ने
होंठों को जुदा किया
आवाज निकली
"चमार"
इस खामोश से लफ्ज में
इतना धमाका था
जैसे हजार डाइनामाइट
एक साथ फट पड़े हों
होने वाला ससुर
अब हिटलर था
उसके सामने
प्रेमी अब प्रेमी नहीं
पोलैंड था।
"निकल जा
दोबारा
इस गली में भी नजर आया
तो तेरी खैर नहीं
साला चमार कहीं का !!"
सोफा गन्दा कर दिया
अब इसे
धोना-सुखाना पड़ेगा
या आग में जलाना पड़ेगा !
अगले कुछ दिनों तक
मजनूँ को लैला
याद नहीं आई
लेकिन लैला को
मजनूं की याद जरूर आई
लैला ने फोन किया
कहा
तुम कितने नीच हो
तुमने मुझसे कभी
क्यों नहीं बताया कि
तुम इंसान नहीं
चमार हो !!
मजनूं की आँखें
अब खुली थीं
जो Pyar में
पिछले सात सालों में
अंधी हो चुकी थी
फिर एक दिन मजनूँ
सनडे को लैला के
दरवाजे पर खड़ा था
लेकिन आज वह
मजनूँ नहीं, चमार नहीं
एक बौद्ध हो चुका था
दरवाजा उसी बूढ़े ने खोला
जो कभी होने वाला ससुर था
वो सीधे बिना पूछे
सोफे पर जा बैठा
और बोला
आपने इस सोफे को
अभी तक जलाया नहीं
चलो
धोया-सुखाया तो
जरूर होगा
लेकिन अपनी
लड़की को
धोया, सुखाया, जलाया
क्यों नहीं
जो मेरी गोद को
सोफा समझकर
पिछले सात सालों तक
बैठती रही
मेरे छूने से तुम्हारा सोफा
ख़राब हो सकता है
लेकिन तुम्हारी
लड़की क्यों नहीं?


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