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बुजुर्गों के लिए वृद्धाश्रम क्यों बनाना है?

Old-Age-Home

Senior Citizens Old Age Home : बुजुर्गों की बढ़ती आबादी छोटे होते परिवारों के लिए एक समस्या बन रही है। जिन घरों में बुजुर्ग भी साथ रहते हैं वहां पर महिलाओं को कई तरह की समस्याएं झेलनी पड़ रही है। न तो वह ऑफिस मैनेज कर पाती हैं न ही घर के बुजुर्गों को। ऐसे में एक ही विकल्प बचता है, वृद्धाश्रम या Old Age Home.

क्या वृद्धाश्रम सही निर्णय है?

2011 में हुई जनगणना के अनुसार देश में वरिष्ठ जन की संख्या 10.4 करोड़ थी। NSO के आंकड़ों के अनुसार, साल 2021 में देश में बुजुर्गों की आबादी 13 करोड़ 80 लाख थी जो कि अगले एक दशक में यानी साल 2031 तक 41 फीसदी बढ़ कर 19 करोड़ 40 लाख हो जाएगी और अनुमान है कि 2050 तक भारत में बुजुर्गों की आबादी 31.9 करोड़ हो जाएगी।

बुजुर्गों की यह बढ़ती आबादी छोटे होते परिवारों के लिए एक समस्या बन रही है। पुराने जमाने में जब बड़े परिवार हुआ करते थे। संयुक्त परिवारों में कई लोग साथ रहते थे और मिल-जुल कर बुजुर्गों की देखभाल किया करते थे। उस दौर की सामाजिक स्थिति यही थी लेकिन पिछले कुछ दशकों से परिवार लगातार छोटे होते जा रहे हैं।

इस बीच महिलाओं की स्थिति में भी बदलाव आया है। महिलायें जॉब कर रही हैं, बिजनेस कर रही हैं, पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिला कर चल रही हैं। आज की महिलायें घर में रह कर चौका-बर्तन करना पसंद नहीं करती। यह महिलाओं की आजादी का दौर है इसलिए यह दौर पहले से बेहतर है लेकिन जिन घरों में बुजुर्ग भी साथ रहते हैं वहां महिलाओं को कई तरह की समस्याएं झेलनी पड़ती हैं।

वृद्धावस्था सभी के जीवन में आता है। यह जीवन की स्वाभाविक प्रक्रिया है। जो लोग अपने बच्चों की परवरिश में अपना जीवन खपा देते हैं जब उन्हें बुढ़ापे में अपनी देख-भाल की जरूरत पड़ती है तब बच्चों के पास समय नहीं होता। बच्चे अपनी जिंदगी की जद्दो-जहद में इतना व्यस्त हो जाते हैं कि उन के लिए घर के बुजुर्ग बोझ बन कर रह जाते हैं लेकिन इस का दूसरा पहलू भी है। बुजुर्ग लोगों को सब से ज्यादा इमोशनल सपोर्ट की जरूरत होती है और उन की यह भावनात्मक अपेक्षाएं बढ़ती चली जाती हैं। नौकरी पेशा लोगों के पास इतना समय नहीं होता कि वो बुजुर्गों की अपेक्षाएं पूरी कर सकें।

बेटी के घर का पानी नहीं पी सकते

भारतीय समाज के पुरुषवादी व्यवस्था में लड़कियां पराई समझी जाती हैं। भारतीय पिता तो बेटी के घर का पानी पीने से भी परहेज करते हैं इस मानसिकता के कारण बेटों पर ही अपने माता-पिता के देखभाल की जिम्मेदारी आन पड़ती है।

यही कारण है कि भारत में पेरैंट्स अपना बुढ़ापा बेटों के साथ ही गुजारना चाहते हैं। Handbook of Aging की एक सोशल स्टडी के अनुसार 80% लोग अपने बुढ़ापे में बेटे के साथ रहना चाहते हैं। 2012 UNFPA ने भारत के 7 राज्यों में सर्वे किया जिस में 50% बुजुर्ग ही अपने बेटे-बहू के साथ रह रहे थे।

क्लिनिकल साइकोलॉजिस्ट प्रियंका श्रीवास्तव कहती हैं कि “ज्यादातर बुजुर्ग Parents बेटियों के साथ इसलिए नहीं रहना चाहते क्योंकि उन्हें बेटी में फाइनेंशियल और इमोशनल सिक्योरिटी नजर नहीं आती, जो उन्हें बेटों को देख कर मिलती है। Parents शादी-शुदा बेटी के साथ चाह कर भी सहज नहीं रह पाते जब कि लड़कियां Emotional होती हैं और वे Parents की मजबूरी और परेशानी बेटों से बेहतर समझती हैं।”

बेटों के साथ बुढ़ापा बिताने की इस मानसिकता में सब से बड़ी समस्या यह है कि बेटे अपने पेरैंट्स के देखभाल की जिम्मेदारी अपनी पत्नियों पर डाल देते हैं। जो महिलायें हाउसवाइफ हैं वो इस जिम्मेदारियों को पूरी तरह निभाती भी हैं लेकिन जो महिलायें कहीं जॉब कर रहीं हैं उन के लिए पति के Parents की जिम्मेदारी संभालना आसान नहीं होता।

मनोज के पिता वैजनाथ की उम्र 82 साल थी। मनोज और उनकी वाइफ श्रुति दोनों नोएडा में रहते थे और दोनों ही जॉब करते थे। दोनों की दो बेटियां थीं। रिंकी और पिंकी। रिंकी उज्बेकिस्तान में रह कर एमबीबीएस कर रही थी और पिंकी बैंगलोर में रह कर एमबीए की पढ़ाई कर रही थी। ऐसे में घर के बुजुर्ग की देखभाल श्रुति और मनोज के लिए एक बड़ी चुनौती थी। श्रुति जॉब पर रहती तो उसे अपने ससुर वैजनाथ की ही चिंता लगी रहती।

वैजनाथ जी की थोड़ी भी तबियत बिगड़ने पर श्रुति को ऑफिस से छुट्टी लेनी पड़ती और पूरे दिन उन की देखभाल करनी पड़ती। श्रुति के साथ मनोज भी काफी परेशान हो चुका था इसलिए दोनों ने पास के वृद्धाश्रम में बात की और वैजनाथ जी को वृद्धाश्रम में भेज दिया। वहां उन्हें समय पर दवाइयां मिलती। देखभाल होती और खाना वगैरह भी समय पर मिलता। अपने जैसे बहुत से लोगों के बीच वह भी काफी बेहतर फील करने लगे। दोनों पति-पत्नी वीकेंड पर वृद्धाश्रम जाते और वहां से वैजनाथ जी को साथ ले कर पास के पार्क में समय बिताते। महीने दो महीने पर उन्हें साथ ले कर कहीं घूमने चले जाते।

वैजनाथ जी के वृद्धाश्रम जाने के बाद श्रुति को बहुत आराम मिला। अब वह निश्चिंत हो कर अपने जॉब पर जाती और घर आने के बाद बेहद सुकून महसूस करती लेकिन अपने घर के इकलौते बुजुर्ग को वृद्धाश्रम में भेज देने से मनोज के रिश्तेदार बेहद नाराज थे। वो कहने लगे कि “देखो ये लोग कितने खुदगर्ज हैं एक बुजुर्ग की सेवा नहीं कर सके उन्हें वृद्धाश्रम में फेंक दिया। जिंदगी भर वैजनाथ ने संघर्ष किया बेटे को पढ़ाया-लिखाया, उस की शादी की अब वही बेटा अपने बाप को वृद्धाश्रम में डाल आया।”

वृद्धाश्रम या Old Age Home को ले कर हमारे समाज में बहुत सी धारणाएं बनी होती हैं। जिन लोगों के बुजुर्ग वृद्धाश्रमों में होते हैं उन्हें ले कर समाज का नजरिया अच्छा नहीं होता। लोग तरह-तरह की बातें बनाते हैं।

कौन करे सास-ससुर की देखभाल?

सत्संगों में बाबा लोग महिलाओं को अक्सर सास-ससुर की सेवा करने के पुण्य समझाते हैं और इस तरह के प्रवचनों से पुरुष लोग बेहद खुश होते हैं। दरअसल, सत्संगों से निकलने वाले इस तरह के विचार महिलाओं को गुलाम बनाए रखने के हथकंडे होते हैं। क्या कोई बाबा पुरुषों को अपने सास-ससुर की सेवा करने का पुण्य समझाता है? तमाम तरह की परंपराओं के साथ बुजुर्गों की सेवा का भार भी महिलाओं के कंधों पर डाला गया है ताकि महिलायें पारिवारिक जिम्मेवारियों के बोझ तले दबी रहें।

मुस्लिम महिलाओं को भी बचपन से इसी तरह के संस्कार दिए जाते हैं उन्हें सास-ससुर की सेवा के बदले जन्नत में इनाम का झांसा दिया जाता है और महिला इस झांसे में फंस कर अपनी जिंदगी खपा देती हैं लेकिन उसे बदले में कुछ नहीं मिलता। समाज महिला की इस सेवा को महिला का फर्ज मान कर चलता है।

फिरदौस अपने अब्बू की इकलौती संतान थी। फिरदौस की अम्मी अरसा पहले गुजर चुकी थी। तीन साल पहले फिरदौस की शादी नसीम से हुई। शादी के बाद फिरदौस अपने ससुराल दिल्ली आई तो कानपुर में फिरदौस के अब्बू बिल्कुल अकेले पड़ गए। फिरदौस की ससुराल में उस के शौहर के अलावा बूढ़े ससुर थे। वो अपने ससुर का ख्याल अपने अब्बू की तरह रखती थी लेकिन कानपुर में उस के अपने अब्बू की सेवा के लिए कोई नहीं था।

फिरदौस के अब्बू को घुटनों में तकलीफ थी। अब्बू से फोन पर जब भी बात होती फिरदौस भावुक हो जाती। एक दिन फिरदौस ने नसीम से कहा- नसीम, मैं सोच रही हूं कि अपने अब्बू को कानपुर से दिल्ली बुला लूं और एम्स में उन के घुटने का इलाज करवा दूं ताकि उन्हें चलने-फिरने में होने वाली तकलीफ से निजात मिले। फिरदौस की बात सुन कर नसीम बोला- “तुम्हारे अब्बू अकेले रहते हैं तो तुम उन्हें वृद्धाश्रम में क्यों नहीं भेज देती वहां उन का इलाज भी हो जाएगा और अकेलापन भी दूर होगा।”

फिरदौस को नसीम से ऐसी बात सुनने की उम्मीद नहीं थी उसे गुस्सा आ गया और वह गुस्से में तमतमाते हुए नसीम से बोली- “मैं यहां रह कर तुम्हारे बूढ़े अब्बू की खिदमत में अपनी जिंदगी गंवा दूं और मेरे अब्बू को तकलीफ है तो उन्हें वृद्धाश्रम में भेज दूं। मैं शादी के बाद जॉब करना चाहती थी लेकिन तुम्हारे अब्बू की वजह से मैंने जॉब नहीं किया ताकि उन्हें तकलीफ न हो अगर मेरे अब्बू वृद्धाश्रम जा सकते हैं तो तुम्हारे अब्बू क्यों नहीं जा सकते?”

फिरदौस की बात सुन कर नसीम को भी गुस्सा आ गया. उस ने फिरदौस के गाल पर एक जोरदार थप्पड़ जड़ दिया और बोला- “तुम औरत हो और सास-ससुर की खिदमत करना तुम्हारा फर्ज है तुम्हें अपने बाप की चिंता है तो निकल जाओ यहां से और चली जाओ अपने बाप के पास।”

फिरदौस को अपने शौहर से ऐसी उम्मीद नहीं थी लेकिन बात उस के स्वाभिमान पर आ गई थी इसलिए वो शाम की ट्रेन से ही कानपुर के लिए निकल गई। कानपुर के प्राइवेट हास्पिटल में उस ने अपने अब्बू का ट्रीटमैंट करवाया और अपने अब्बू के पास रह कर कानपुर में ही जॉब करने लगी इस बीच नसीम को अपनी गलती का एहसास तो हुआ लेकिन वो चाहता था कि फिरदौस खुद ब खुद दिल्ली चली आए लेकिन ऐसा नहीं हुआ।

अब घर में बूढ़े बाप की खिदमत नसीम के लिए मुश्किल था। अपने अब्बू के चक्कर मे वह जॉब भी ठीक से नहीं कर पा रहा था। नसीम ने अपनी बहन से बात की तो उस ने भी अब्बू को अपने पास रखने से मना कर दिया आखिर कार नसीम को नजदीकी वृद्धाश्रम में अपने अब्बू को भेजना पड़ा।

वृद्धाश्रम क्यों जरूरी हैं?

भारत में बुजुर्गों के लिए केंद्र और राज्य सरकारों की ओर से वृद्धावस्था पेंशन की व्यवस्था है। यह अलग-अलग राज्यों में 600 रुपए से 1000 रुपए तक हर महीने होती है लेकिन सवाल उठता है कि बुजुर्गों की बड़ी आबादी को ध्यान में रखते हुए क्या ये रकम पर्याप्त है?

यह सच है कि बुजुर्गों के लिए परिवार से बेहतर कोई जगह नहीं। परिवार में अपनों के बीच रह कर बुजुर्ग अपनी आयु से ज्यादा जी लेता है लेकिन स्थितियां बदल रही हैं और इन बदलती परिस्थितियों मे वृद्धाश्रम की अहमियत बढ़ रही है लेकिन वृद्धाश्रम के मामले में समाज का नजरिया आज भी नकारात्मक ही है।

हमारा समाज बदलाव को सहजता से स्वीकार करने वाला समाज नहीं है। बुजुर्गों के मामले में भी आज पारंपरिक सोच कायम है जबकि इस से बहुत सारी समस्याएं पैदा हो रही हैं और वह सब समस्याएं महिला ही झेल रहीं हैं। आज भी हमारा पुरुषवादी समाज महिलाओं को इतनी आजादी देने के पक्ष में नहीं है कि वह सास-ससुर की देखभाल की जिम्मेदारी से मुक्त हो जाएँ।

वृद्धाश्रम वक्त की जरूरत है इस बात को भारतीय समाज हजम नहीं कर पा रहा लेकिन शिक्षित और विकसित समाजों में वृद्धाश्रम की अहमियत समझी जा रही है।

फिनलैंड में बुजुर्गों की स्थिति

फिनलैंड दुनिया का सब से खुशहाल देश हैं। विश्व प्रसन्नता सूचकांक (World Happiness Index) में नंबर-1 पर आने वाला यह देश अपने बुजुर्गों की देखभाल के मामले में भी नंबर वन है। सीनियर सिटीजन को दी जाने वाली बेहतर स्वास्थ्य सुविधाओं और सामाजिक सुरक्षा प्रणाली सोशल सिक्योरिटी सिस्टम (Social Security System) के कारण यहां लोगों का जीवन विस्तार (Life Expectancy) 84 साल तक पहुंच गई है।

फिनलैंड में 60 साल से अधिक उम्र का हर शख्स वृद्धावस्था पेंशन (Old Age Pension) का हकदार होता है। फिनलैंड 60 साल से ऊपर के बुजुर्गों को Old Age Pension के तौर पर हर महीने 1888 यूरो देता है जो कि भारतीय रुपए में एक लाख 65 हजार रुपए है। इस के अलावा, सरकार की ओर से बुजुर्गों को फिजिकली और सोशली एक्टिव रखने के लिए भी कई तरह के कदम उठाए जाते हैं।

फिनलैंड की आबादी में बुजुर्गों की हिस्सेदारी 27 फीसदी से अधिक है। Old Age Home को बढ़ावा देने की जगह वहां का प्रशासन जहां तक संभव होता है बुजुर्गों को उन के घर पर ही हैल्थ केयर, मेडिकल चेकअप और बाकी सुविधाएं मुहैया कराता है। ताकि यहां के बुजुर्ग लोग अपने घरों में ही आराम से रह सकें। इस के लिए स्थानीय एजेंसियां उन के घर की, सीढ़ियों की, इंटीरियर को भी आ कर डिजाइन करती हैं ताकि बुजुर्गों को घर में दिक्कतों का सामना न करना पड़े।

इतनी सुविधाएँ (Facilities) और योजना (Scheme) के अलावा फिनलैंड में दुनिया में सब से ज्यादा Old Age Home भी बने हैं जहां तमाम तरह की सुविधाओं के साथ बुजुर्गों के फिट रहने और खुश रहने के लिए तमाम तरह के साधन मौजूद हैं।

भारत में हम, बुजुर्गों के लिए सरकार की ओर से इस तरह की सुविधाओं की उम्मीद नहीं कर सकते। 600 या 1000 रुपए प्रतिमाह की पेंशन दे कर सरकार अपनी जिम्मेदारी पूरी करती है। सामाजिक तौर पर बुजुर्गों के लिए हमदर्दी तो होती है लेकिन बुजुर्गों को सहूलियत और सकून देने का कोई समाधान नहीं होता। इस अव्यवस्था में महिलाओं का सब से ज्यादा शोषण होता है। सास-ससुर की सेवा के नाम पर महिलायें बंध जाती हैं और अपने जीवन का कीमती समय इस संस्कार को ढोने में लगा देती हैं।

भारत में कुल 728 वृद्धाश्रम हैं और इन 728 वृद्धाश्रमों में एक करोड़ अस्सी लाख बुजुर्ग रहते हैं। हैरानी की बात है कि दुनिया के सब से शिक्षित और खुशहाल देश फिनलैंड में सब से ज्यादा वृद्धाश्रम हैं तो भारत के सब से शिक्षित और सब से विकसित राज्य केरल में सब से ज्यादा 182 वृद्धाश्रम हैं।

इस से वृद्धाश्रम को ले कर जो नकारात्मक सोच बनी हुई है उस की पोल खुल जाती है। फिनलैंड और केरल इस बात का उदाहरण हैं कि वृद्धाश्रम या Old Age Home वक्त की जरूरत है और शिक्षित समाज की पहचान भी।

क्यों वृद्धाश्रम का संचालन वृद्धों को करना ठीक है?

ज्यादातर वृद्धाश्रमों का संचालन NGO करते हैं। वृद्धाश्रमों में बुजुर्गों की देखभाल, मैनेजमेंट और केयर टेकर के लिए सरकार की कोई खास गाइडलाइंस नहीं होती। बुजुर्गों को इन वृद्धाश्रमों में अपनापन फील नहीं हो पाता। शहरों में जगह की कमी के कारण छोटी जगहों में भी वृद्धाश्रम चल रहे हैं जो बुजुर्गों के लिए किसी जेल से कम नहीं हैं। घर के एक कमरे में खुशी से रहने वाले बुजुर्ग का एक एकड़ में बने वृद्धाश्रम में दम घुटने लगता है।

बुजुर्गों की केयर करना बच्चों का काम नहीं है। यह एक हुनर है, स्किल है। भावनात्मक लगाव जो अपने परिवार के बीच मिलता है वो वृद्धाश्रम नहीं दे सकते लेकिन वृद्धाश्रमों का मैनेजमेंट यदि बुजुर्गों के हाथों में हो और केयरटेकर भी 65 से ऊपर के हों तो इस से बड़ा फर्क पड़ सकता है।

छोटा बच्चा स्कूल जाने से कतराता है और शुरुआत में बहुत परेशान करता है लेकिन स्कूल का वातावरण घर जैसा हो और टीचर उस से मां जैसा बर्ताव करें तो स्कूल में बच्चे का मन लगने लगता है। बुजुर्ग भी बच्चे जैसे हो जाते हैं। उन्हें वृद्धाश्रम के नाम से भी डर लगता है लेकिन वृद्धाश्रम में घर जैसा वातावरण हो और केयरटेकर बुजुर्गों की भावनाओं से जुड़ जाएं तो वृद्धाश्रम में उन का मन लगने लगता है।

सही वृद्धाश्रम का चयन कैसे करें?

जब तक संभव हो अपने बुजुर्ग की देखभाल करें। अपने बुजुर्गों के साथ इमोशनल जुड़ाव कायम रखें।  उन से बातें करते रहें। महीने दो महीने में उन्हें ले कर कहीं आसपास घूमने जायें। सुबह उन्हें नजदीक के पार्क तक साथ ले जाएं। बच्चों को बुजुर्गों के साथ वक्त बिताने के लिए प्रेरित करें और जब ऐसा लगने लगे कि आप के बुजुर्ग की देखभाल के चक्कर में आप या आप के घर की औरत पिस रही है तब ही वृद्धाश्रम का ख्याल मन में लाएं।

वृद्धाश्रम में भेजने से पहले अपने बुजुर्ग को विश्वास में लीजिए। उन्हें अपनी समस्या बताइए। उन से कहिए कि आप की बेहतर देखभाल के लिए ही आप ऐसा सोच रहे हैं। भावनात्मक रूप से आप के बुजुर्ग के लिए फैसला लेने में थोड़ी मुश्किल तो जरूर होगी लेकिन आप उन्हें भरोसा दिलाएंगे तो वे मान जाएंगे।

आप जिस शहर में रहते हो वहां नजदीक के वृद्धाश्रम में विजिट करें। माहौल देखें और मैनेजमेंट भी। यह भी ध्यान दें कि वहां वृद्धाश्रम का एरिया कितना बड़ा है। टहलने के लिए पार्क हो। बैठने के लिए बेंच और कुर्सियां पर्याप्त मात्रा में हो। वृद्धाश्रम का कंपाउंड जेल की तरह बंद न हो वरना आप के बुजुर्ग को जल्द ही घुटन महसूस होने लगेगी।

वृद्धाश्रम भीड़भाड़ वाले इलाके में न हो वरना पूरे दिन शोर की आवाजें आती रहेंगी। वृद्धाश्रम के स्टाफ के बर्ताव पर गौर करें और उन से बातें करें। स्टाफ का व्यवहार बहुत मायने रखता है। पहली विजिट से यदि आप संतुष्ट हैं तो शुरुआत में पहले पंद्रह दिनों के लिए अपने बुजुर्ग को वहां भेजें, इस बीच लगातार उन से मिलने आते रहें।

बच्चे हों तो उन्हें भी साथ ले कर अपने बुजुर्ग से मिलने पहुंचे। पंद्रह दिनों के बाद एक सप्ताह के लिए उन्हें फिर से घर ले आयें और इस तरह लगातार छह महीनों तक करें। अपने जैसे कई लोगों के बीच रह कर उन्हें अपने परिवार से दूरी का एहसास कम होने लगेगा। धीरे-धीरे उन्हें वृद्धाश्रम में रहने की आदत हो जाएगी।

एनजीओ द्वारा फिल्म निर्माण के क्षेत्र में काम कैसे करें?

एनजीओ (गैर-सरकारी संगठन) द्वारा फिल्म निर्माण के क्षेत्र में काम करने के लिए एक व्यवस्थित और रचनात्मक दृष्टिकोण की आवश्यकता होती है। यहाँ कुछ चरण और सुझाव दिए जा रहे हैं जो आपको इस दिशा में मदद कर सकते हैं:

  1. उद्देश्य निर्धारित करें:

    सबसे पहले यह स्पष्ट करें कि आपका एनजीओ फिल्म निर्माण के माध्यम से क्या हासिल करना चाहता है। उदाहरण के लिए, सामाजिक जागरूकता, शिक्षा, पर्यावरण संरक्षण, या किसी विशेष मुद्दे पर ध्यान आकर्षित करना। उद्देश्य जितना स्पष्ट होगा, फिल्म की दिशा उतनी ही प्रभावी होगी।

  2. टीम तैयार करें:
    • फिल्म निर्माण के लिए एक कुशल टीम बनाएं जिसमें स्क्रिप्ट राइटर, डायरेक्टर, कैमरामैन, एडिटर और अभिनेता शामिल हों।
    • यदि बजट सीमित है, तो स्वयंसेवकों या स्थानीय प्रतिभाओं को शामिल करें जो आपके मिशन से जुड़ना चाहते हों।
  3. फंडिंग की व्यवस्था:
    • एनजीओ के पास सीमित संसाधन हो सकते हैं, इसलिए क्राउडफंडिंग, डोनेशन, या ग्रांट्स के लिए आवेदन करें।
    • कॉर्पोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी (CSR) फंड्स भी एक अच्छा विकल्प हो सकते हैं।
    • फिल्म के सामाजिक प्रभाव को हाइलाइट करके फंडर्स को आकर्षित करें।
  4. कहानी और स्क्रिप्ट:
    • एक ऐसी कहानी चुनें जो आपके एनजीओ के मिशन से जुड़ी हो और दर्शकों पर गहरा प्रभाव डाले।
    • स्क्रिप्ट सरल, भावनात्मक और संदेश देने वाली होनी चाहिए।
    • स्थानीय भाषा और संस्कृति का ध्यान रखें ताकि यह लक्षित दर्शकों से जुड़ सके।
  5. उपकरण और तकनीक:
    • महंगे उपकरणों की जरूरत नहीं है। स्मार्टफोन, बेसिक कैमरे और माइक्रोफोन से भी शुरुआत की जा सकती है।
    • फ्री या किफायती एडिटिंग सॉफ्टवेयर (जैसे DaVinci Resolve या iMovie) का उपयोग करें।
  6. कानूनी पहलू:
    • यदि फिल्म में लोग या निजी स्थान शामिल हैं, तो उनकी सहमति लें।
    • कॉपीराइट नियमों का पालन करें, खासकर संगीत या अन्य सामग्री के उपयोग में।
  7. प्रचार और वितरण:
    • फिल्म को यूट्यूब, फेसबुक, या अन्य सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर अपलोड करें।
    • स्थानीय समुदायों, स्कूलों, या संगठनों में स्क्रीनिंग आयोजित करें।
    • फिल्म फेस्टिवल्स में भागीदारी करें ताकि इसे व्यापक दर्शक मिल सकें।
  8. प्रभाव का मूल्यांकन:
    • फिल्म के बाद फीडबैक लें और देखें कि यह आपके एनजीओ के लक्ष्यों को कितना पूरा कर पाई।
    • दर्शकों की प्रतिक्रिया और सोशल मीडिया एनगेजमेंट से प्रभाव को मापें।

उदाहरण:

मान लीजिए आपका एनजीओ पर्यावरण संरक्षण के लिए काम करता है। आप एक लघु फिल्म बना सकते हैं जिसमें एक बच्चा पेड़ लगाने की प्रेरणा देता है। इसे कम बजट में शूट करें और सोशल मीडिया पर वायरल करने की कोशिश करें।

Grants for NGO Film Making

फिल्म निर्माण के लिए कई अनुदान उपलब्ध हैं, जिनमें सामाजिक मुद्दों के लिए अनुदान, प्रारंभिक चरण की परियोजनाओं के लिए अनुदान और कथा फिल्म निर्माताओं के लिए अनुदान शामिल हैं।
सामाजिक मुद्दों के लिए अनुदान
  • यस फाउंडेशन द्वारा सामाजिक फिल्म अनुदान उभरते फिल्म निर्माताओं को सतत विकास लक्ष्यों के बारे में सार्वजनिक सेवा घोषणाएं करने के लिए प्रतिस्पर्धी अनुदान
  • वॉयसेज विद इम्पैक्ट फिल्म निर्माण अनुदान कार्यक्रम वैश्विक मुद्दों पर काम करने वाले फिल्म निर्माताओं के लिए अनुदान
प्रारंभिक चरण की परियोजनाओं के लिए अनुदान
  • Global Seed Grants प्रारंभिक चरण की विकास परियोजनाओं के लिए अनुदान
  • SFFILM Rainin Grant : कथा फिल्म निर्माताओं के लिए विकास, पटकथा लेखन और पोस्ट-प्रोडक्शन में अनुदान।
अन्य अनुदान
  • नेशनल जियोग्राफिक सोसायटी अनुदान कार्यक्रम : फिल्म निर्माताओं के लिए अनुदान कार्यक्रम।
  • फिल्म प्रमोशन फंड : भारतीय फिल्म निर्माताओं को अपनी फिल्मों को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रचारित करने में सहायता के लिए सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय से अनुदान   
  • सांस्कृतिक समारोह और उत्पादन अनुदान (सीएफपीजी) विशिष्ट परियोजनाओं के लिए संस्कृति मंत्रालय से अनुदान   
अतिरिक्त अनुदान संसाधन
  • FundsforNGOs.org ने वैश्विक मुद्दों पर काम करने वाले फिल्म निर्माताओं के लिए अनुदानों की सूची बनाई है।
  • FilmDaily.tv पर फिल्म निर्माण के लिए धन जुटाने के अन्य तरीकों के बारे में जानकारी है, जिसमें सरकारी फंडिंग, कर प्रोत्साहन और क्राउडफंडिंग शामिल हैं।

कौन जात हो भाई? - शकील प्रेम

Kaun-Jaat-Ho-Bhai-Hindi-Kavita

Help Upasana के ब्लॉग सेक्शन में एक बार फिर आपका स्वागत है। आज की चर्चा में हमने सम्मिलित किया है, प्रसिद्ध लेखक शकील प्रेम की उन विशेष कविताओं को जिसे उन्होंने [India's caste problem] पर लिखा है। यहां पढ़िए उनकी भावपूर्ण रचना 'कौन जात हो भाई?' और 'प्यार में जाति'।

कविताओं के बारे में दो शब्द

ये ऐसी कविताएं हैं, जिन्हें आप चाहें भी तो एक सांस में नहीं पढ़ सकते, इनकी यही खूबसूरती है कि इन्हें थोड़ा थम-थम कर, थोड़ा रम-रम कर पढ़ना पड़ेगा। कवि व लेखक Shakeel Prem की ये कविताएं सूक्ष्म संवेदनाओं में पगी हुई हैं जो पढ़ने में ऊपर से तो सहज, सरल और सुन्दर लगती हैं, लेकिन ये ऐसी सूक्ष्म संवेदनाएं हैं, जिनसे हो कर गुजरते हुए हम सहसा चकित हो जाते हैं। जिन दृश्यों और घटनाओं से हो कर गुजरना हमारे लिए रोजमर्रा की बात है उसे कवि न केवल अपने में अनुस्यूत करता है बल्कि अपने काव्य कौशल से उसे खास बना देता है।

ये कविताएं दिखती मासूम सी हैं, पर गहरे वार करती हैं। पढ़ने वाले को बेचैन कर देती हैं। सोचने और सिहरने पर मजबूर कर देती हैं। अपनी कविताओं में कवि ने जहां एक तरफ जीवन की वास्तविकता को सावधानी से उकेरा है, वहीं दूसरी तरफ जीवन की विद्रूपताओं को भी जस का तस रख दिया है। ये वे कविताएं हैं जो सहज ही पढ़ने वाले के जीवन से जुड़ जाती हैं। ये कविताएं संगीत के उस ताल की तरह हैं जो कभी द्रुत होता है तो कभी विलंबित।

Shakeel Prem उन दुर्लभ कवियों में से एक हैं जिनके जीवन और रचनाओं में आपको कोई फांक नहीं मिलेगी। हम पहली बार पर कवि की कुछ बिल्कुल टटकी कविताएं प्रस्तुत कर रहे हैं। ये उनके यूट्यूब चैनल और उनके फेसबुक एकाउंट से प्रकाशित की गई हैं।

जाति का कोई अस्तित्व नहीं होता।

लेकिन, भारत के लोग आपको देख कर यह सवाल जरूर पूछेंगे कि आप कहां से आ रहे हैं? कहां जा रहे हैं? नाम क्या है? और अंत में आपकी जाति क्या है? दरअसल भारतीय समाज में कुछ छिपे हुए विशेषाधिकार यानी Privilege काम करते हैं। आप क्या कर सकते हैं? क्या नहीं कर सकते? क्या बन सकते हैं? क्या नहीं बन सकते? कितना आगे पहुंच सकते हैं? कितना पीछे रह जाएंगे? क्या प्राप्त कर लेंगे? क्या प्राप्त नहीं कर पाएंगे?

आपके अस्तित्व का निर्धारण उन छिपे हुए Privilege यानी विशेषाधिकारों के आधार पर तय होता है। भारतीय समाज में कुछ जातियों, कुछ वर्गों, कुछ वर्णों और कुछ समुदायों के लिए जो भेदभाव भरी स्थिति बना दी गई है उस पर ध्यान दिए जाने और उसे बदलने की ज़रूरत है। अपने विशेष अधिकारों को पहचानना और उसके आधार पर होने वाले भेदभाव तथा दूसरों से वह अधिकार छीन लिए जाने की हालत पर हम सबको सवाल उठाना होगा और इस स्थिति को बदलना होगा।

दुनिया जानती है कि वास्तव में जाति जैसी किसी चीज का कोई अस्तित्व नहीं होता।

लेकिन भारत में जब कोई व्यक्ति जाति को ना मानने के रास्ते पर चलता है तो परिवार और समाज उसे बुरा-भला कहते हैं उसका बहिष्कार कर देता है, कई बार उस पर हमले भी किए जाते हैं। हमारा समाज सबसे ज्यादा सत्य से डरता है।

तो आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं शकील प्रेम की भारत की जातिगत समस्या पर लिखी हिन्दी कविता

कौन जात हो भाई? (कविता)

स्कूल में पढ़े थे हम कि जाति न पूछो भाई
बड़े हुए तो सबने पूछा कौन जाति हो भाई?

डर लगता है अब देख कर अपनी ही परछाई
कहीं यह भी न पूछ ले कौन जाति हो भाई?

गंदी बस्ती कूड़ा-करकट और गंदगी का ढेर
इंसान नही हम सब थे बस जिंदगी का ढेर

लाचारी के उस आलम में फैला हुआ था रोग
इलाज बिना ही मर जाते बस्ती के कई लोग

टूटी झोपड, चिथड़े कपड़े, फटी हुई रजाई
कुत्ते, सुअर आकर पूछे कौन जाति हो भाई?

स्कूल में पढ़े थे हम, कि जात न पूछो भाई
बड़े हुए तो सबने पूछा कौन जाति हो भाई?

माँ बीमार थी और पापा मजबूर थे
मैं बेरोजगार तो दादा खेतिहर मजदूर थे

सड़के लंबी मगर आंगन छोटा होता था
छोटी जाति का तो सब कुछ छोटा होता था

बडे लोगों कि बात बड़ी होती थी
परिवार छोटा मगर जाति बड़ी होती थी

मलिकाइन गांव में थी, मालिक रेलवे में थे
बेटी लंदन में थी और बेटे नॉर्वे में थे

जिनके खलिहानों में बाप दादा ने जिंदगी गंवाई
नॉर्वे से आये साहब ने पूछा कौन जाति हो भाई?

स्कूल में पढ़े थे हम, की जात न पूछो भाई
बड़े हुए तो सबने पूछा कौन जाति हो भाई?

मालिक के घर चोरी हुई अंगूठी
और एफआईआर लिखा दी झूठी

मालिक थोड़ा जिद्दी मगर मालकिन नेक थी
मालिक और थानेदार की जाति एक थी

बस्ती में जो नजर आया सब के सब चोर थे
शरीर भले था हट्टा कट्टा जाति से कमजोर थे

थानेदार गुस्से में था और मालिक जज्बात में थे
शाम तक बस्ती के ज्यादातर लोग हवालात में थे

मालकिन कि दया से सबको थाने से छुट्टी मिल गई
मालिकन को अपने घर मे ही खोई अंगूठी मिल गई

यह खबर सुनकर सबकी जान में जान आई
तभी थाने के चौकीदार ने पूछा कौन जाति हो भाई?

स्कूल में पढ़े थे हम, की जाति न पूछो भाई
बड़े हुए तो सबने पूछा कौन जाति हो भाई?

जैसे जैसे चुनाव नजदीक आते थे
मेरी जाति के हालात कुछ ठीक हो जाते थे

भारत की संतान हो जाता था
मैं भी एक इंसान हो जाता था

न्याय समानता कि बातें
सुन-सुन कर हैरान हो जाता था

चुनाव के वक्त, हम आपस मे सब भाई भाई
चुनाव के बाद नेता जी पूछे कौन जाति हो भाई?

स्कूल में पढ़े थे हम, की जात न पूछो भाई
बड़े हुए तो सबने पूछा कौन जाति हो भाई?

दिन गुजरे हालात न बदले
मालिक के जज्बात न बदले

माँ गुजरी और बाप ने दुनिया छोड़ दिया
मालिक के खलिहानों में दादा ने भी दम तोड़ दिया

दादा की नौकरी मुझे मिल गई, बाप का कर्जा भारी था
दो वक्त कि रोटी की खातिर मैं मालिक का आभारी था

जीवन भर की भाग-दौड़ से मालिक को आराम मिला
एक दिन स्वर्ग सिधार गए मालिक को विश्राम मिला

मालिक की आत्मा स्वर्ग में पहुंचे मालकिन ने पूजा करवाई
भोज में पहुँचा तो पंडित ने पूछा, कौन जाति हो भाई?

स्कूल में पढ़े थे हम की जाति न पूछो भाई
बड़े हुए तो सबने पूछा कौन जाति हो भाई?

गांव के दिन बड़े थे और रात छोटी थी
जिम्मेदारियां बड़ी मगर जाति छोटी थी

जिसने चाहा पैर छुआया
मारा-पीटा और मुआया

भगवान ने हमको अछूत बनाया
जाति के भय ने गांव छुड़ाया

शहर गए तो काम मिला और मिली रुसवाई
अगले ही दिन मकान मालिक ने पूछा कौन जाति हो भाई?

स्कूल में पढ़े थे हम कि जात न पूछो भाई!
बड़े हुए तो सबने पूछा कौन जाति हो भाई?

धूप और मेहनत में तपकर मैं बन गया ठेकेदार
कलंक मिटा गरीबी का और मैं हो गया मालदार

उम्र के 35 साल पूरे हो चुके थे
गांव दूर था और रिश्ते भी खो चुके थे

शहर में मेरे पास था गाड़ी, बंगला और कार
बीवी के बिना लेकिन यह सब कुछ था बेकार

दौलत के आगे अब कोई मेरा वर्ण न बूझ पायेगा
अमीर हो गया मैं अब कोई मेरी जाति न पूछ पायेगा

शादी की खातिर अखबार के दफ्तर में फोन लगाया
मैंने अपनी बात कही और उसने मुझको बहुत समझाया

मैंने कहा मुझे आपकी बात समझ न आई
उधर से आवाज आई अरे कौन जाति हो भाई?

स्कूल में पढ़े थे हम, की जात न पूछो भाई
बड़े हुए तो सबने पूछा कौन जाति हो भाई?

ताकतवर खुदा है
और मजहब भी है मजबूत

इंसान मगर है टूटा-फूटा
जाति से मजबूर

खुदा झूठा ईश्वर भी झूठा
जाति झूठी धर्म भी झूठा

कहीं किसी का सिर कटा
तो कहीं किसी का कटा अंगूठा

चमार, दुसाध, डोम और नाई
न जाति छूटी न अक्ल आई

हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई
जातिवाद में बन गये कसाई

जाति और गोत्र के चक्कर में
इंसानियत इन्हें नजर न आई

ऊपर-ऊपर भाईचारा
और मन से बस यही आवाज आई

अरे कौन Jaati हो भाई??

स्कूल में पढ़े थे हम, की Jaati न पूछो भाई
बड़े हुए तो सबने पूछा कौन जाति हो भाई?

डर लगता है अब देख कर अपनी ही परछाई
कहीं यह भी न पूछ ले कौन Jaati हो भाई?

Pyar-Mein-Jaati

प्यार में जाति ! (कविता)

सात साल हो गए
हमारे Pyar को
चलो अब अपने इस Pyar को
अंजाम तक पहुंचाते है,

शादी के पवित्र बंधन में
दोनों बंध जाते हैं।

लड़के ने
अपनी प्रेयसी की
आँखों में आँखें डाल कर कहा।

प्रेयसी ने
कुछ सोच कर
सनडे को
अपने पापा से मिलने
घर आने को कहा

सनडे की सुबह-सुबह
प्रेमी अपनी प्रेमिका के
दरवाजे पर खड़ा था।

उसने घंटी बजाई
होने वाले ससुर जी ने
दरवाजा खोला

प्रेमी की उम्मीदें
कुलांचे मारती हुई
ससुराल के
सोफे पर बैठ गई

तभी होने वाले
ससुर जी ने
कड़कती आवाज में
होने वाले दामाद से
उसकी जाति पूछ ली

इतना सुनते ही
जैसे
प्रेमी की उम्मीदों में
भरी हुई हवा निकल गई
वो सकपकाया
जुबां जैसे सिल गए थे

फिर भी
Pyar की जिद ने
होंठों को जुदा किया
आवाज निकली
"चमार"

इस खामोश से लफ्ज में
इतना धमाका था
जैसे हजार डाइनामाइट
एक साथ फट पड़े हों

होने वाला ससुर
अब हिटलर था
उसके सामने
प्रेमी अब प्रेमी नहीं
पोलैंड था।

"निकल जा
दोबारा
इस गली में भी नजर आया
तो तेरी खैर नहीं
साला चमार कहीं का !!"

सोफा गन्दा कर दिया
अब इसे
धोना-सुखाना पड़ेगा
या आग में जलाना पड़ेगा !

अगले कुछ दिनों तक
मजनूँ को लैला
याद नहीं आई

लेकिन लैला को
मजनूं की याद जरूर आई
लैला ने फोन किया
कहा
तुम कितने नीच हो
तुमने मुझसे कभी
क्यों नहीं बताया कि
तुम इंसान नहीं
चमार हो !!

मजनूं की आँखें
अब खुली थीं
जो Pyar में
पिछले सात सालों में
अंधी हो चुकी थी

फिर एक दिन मजनूँ
सनडे को लैला के
दरवाजे पर खड़ा था

लेकिन आज वह
मजनूँ नहीं, चमार नहीं
एक बौद्ध हो चुका था

दरवाजा उसी बूढ़े ने खोला
जो कभी होने वाला ससुर था
वो सीधे बिना पूछे
सोफे पर जा बैठा
और बोला

आपने इस सोफे को
अभी तक जलाया नहीं
चलो
धोया-सुखाया तो
जरूर होगा

लेकिन अपनी
लड़की को
धोया, सुखाया, जलाया
क्यों नहीं

जो मेरी गोद को
सोफा समझकर
पिछले सात सालों तक
बैठती रही

मेरे छूने से तुम्हारा सोफा
ख़राब हो सकता है
लेकिन तुम्हारी
लड़की क्यों नहीं?

ब्रॉनी वेयर केयर टेकर क्यों बनी?

Help Upasana के ब्लॉग सेक्शन में एक बार फिर आपका स्वागत है। आज की चर्चा में हम जानेंगे कि क्यों लेखक ब्रॉनी वेयर ने अपनी बैंक नौकरी छोड़ कर केयर टेकर बनने का निर्णय लिया?

सोचिए, एक पढ़ी-लिखी लड़की जो एक प्रतिष्ठित बैंक में नौकरी करती है, वह अपनी नौकरी छोड़ कर किसी घर में एक बुजुर्ग महिला की केयर-टेकर का काम करने का फैसला कैसे कर लेती है। जहां वो उन्हें नहलाने-धुलाने से लेकर सूसू-पॉटी तक करवाती है।

हमारे समाज में तो ऐसा सुन कर ही कितना भूचाल आ जाएगा। उसके आसपास के लोग कितनी बातें बनाएंगे, उसे कितनी नसीहतें देंगे। सब यही कहेंगे कि जब केयर-टेकर का काम ही करना था तो इसमें इतना पढ़ने-लिखने की क्या जरूरत थी?

ब्रॉनी वेयर कौन हैं?

ऑस्ट्रेलियाई लेखक, गीतकार और प्रेरक वक्ता ब्रॉनी वेयर का जन्म 19 फरवरी 1967 को हुआ था। वह The Top Five Regrets of the Dying जैसी कई अन्य किताबों की लेखक हैं। उनकी किताब 'द टॉप फाइव रिग्रेट्स ऑफ द डाइंग' दुनिया की 32 भाषाओं में प्रकाशित की गई है, जिसे दस लाख से ज़्यादा लोगों ने पढ़ा है। Bronnie Ware ऑस्ट्रेलिया में 30+ जंगली एकड़ क्षेत्र की मालिक भी हैं, वह वहां एक छोटे से Hempcrete House में रहती है। 

  • ब्रॉनी वेयर ऑफिसियल : Official website
  • ब्रॉनी वेयर यूट्यूब चैनल : Youtube channel
  • ब्रॉनी वेयर विकि : Wikipedia

केयर टेकर को पढ़ने-लिखने की क्या जरूरत है?

मुझे लगता है जरूरत है! हर काम के लिए आप को पढ़ने-लिखने की जरूरत है। ना केवल डिग्री वाली पढ़ाई बल्कि साहित्य पढ़ने की भी जरूरत है। यही पढ़ाई-लिखाई आपको एक संवेदनशील इंसान बनने में मदद करती है। इसलिए डिग्री वाली पढ़ाई के साथ साहित्य भी जरूरी है क्योंकि पढ़ाई-लिखाई आपको सिर्फ किसी काम को करने के काबिल बनाती है और संवेदनशीलता आपको उस काम को और बेहतर तरीके से और ईमानदारी से करने की तरफ धकेलती है कुल मिलाकर आपको उस नौकरी को नौकरी की तरह करने के बजाए उसमें जीना सिखाती है आपको अपने काम से प्यार करना सिखाती है।

इसे एक उदाहरण से समझिए

कई लोगों के पास पैसा तो बहुत होता है लेकिन वक्त नहीं होता अपने बुजुर्ग या बीमार मां-बाप का खयाल रख सकें। इसके लिए वो एक केयर-टेकर रखते हैं जो उनका खाना-पीना, नहलाना-धुलाना सब करते हैं। केयर-टेकर इसके पैसे लेते हैं और यह काम करते हैं।

अपने आखिरी वक्त में बुजुर्ग भी चाहते हैं कि कोई उनकी देखभाल के साथ-साथ उनसे बातचीत करे, उनके मन की भी सुने। यहां जरूरत आती है केयर-टेकर के पढ़ाई-लिखाई और संवेदनशीलता की। एक और चीज है जो हर काम हर नौकरी में जरूरी है और वो है अपने काम से मोहब्बत करना।

आप कोई भी काम कर रहे हों उसे Passionate होकर करेंगे तो उसमें आपको मजा आएगा और दूसरों को भी लाभ होगा। इसके लिए यह भी जरूरी है कि समाज भी हर काम को इज्जत की नजर से देखे कोई काम छोटा या बड़ा नहीं होता। खैर, हम हर चीज में पश्चिम को फॉलो करते हैं तो अभी वहां पर ये शुरू हो गया है, हम तो बाद में ही सीखेंगे!

Old-Age-Care-Taker-Bronnie-Ware

(तस्वीर में फेमस राइटर ब्रॉनी वेयर हैं जिन्होंने बैंक की नौकरी छोड़कर केयर टेकर बनना चुना।)


Help Upasana's Old Age Home

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जीवन के 20 साल कब हवा की तरह उड़ गए। पता ही नहीं चला, फिर शुरू हुई नौकरी की खोज। ये नहीं वो, दूर नहीं पास। ऐसा करते करते 2-3 नौकरियाँ छोड़ते, किसी तरह एक तय हुई। जीवन में थोड़ी स्थिरता की शुरुआत हुई।

फिर हाथ आया पहली तनख्वाह का चेक। वह बैंक में जमा हुआ और शुरू हुआ अकाउंट में जमा होने वाले शून्यों का अंतहीन सिलसिला। 2-3 वर्ष ऐसे ही निकल गए। बैंक में थोड़े और शून्य बढ़े। उम्र 25 की हो गयी। फिर विवाह हो गया। सब की तरह अपने जीवन की भी राम-कहानी शुरू हो गयी।

शुरू के एक 2 साल नर्म, गुलाबी, रसीले, सपनीले गुजरे। हाथों में हाथ डालकर घूमना फिरना, रंग-बिरंगे सपने। पर ये दिन भी जल्दी उड़ गए। फिर बच्चे के आने ही आहट हुई। वर्ष भर में पालना झूलने लगा। अब उसका सारा ध्यान बच्चे पर केन्द्रित हो गया। उठना, बैठना, खाना, पीना और लाड़ दुलार।

समय ऐसे ही झटपट निकल रहा था, इस बीच कब मेरा हाथ उसके हाथ से निकल गया, बातें करना घूमना-फिरना कब बंद हो गया हमें इसका पता ही न चला।

बच्चा बड़ा होता गया। वो बच्चे में व्यस्त हो गयी, मैं अपने काम में। घर और गाड़ी की क़िस्त, बच्चे की जिम्मेदारी, शिक्षा और भविष्य की सुविधा और साथ ही बैंक में शून्य बढ़ाने की चिंता। उसने भी अपने आप काम में पूरी तरह झोंक दिया और मैंने भी इतने में मैं 35 का हो गया। घर, गाड़ी, बैंक में शून्य, परिवार सब है फिर भी कुछ कमी है? पर वो है क्या समझ नहीं आया। उसकी चिड़-चिड बढ़ती गयी, मैं उदासीन रहने लगा।

इस बीच दिन बीतते गए। समय गुजरता गया। बच्चा बड़ा होता गया। उसका खुद का संसार तैयार होता गया। कब 10वीं आई और चली गयी पता ही नहीं चला। तब तक दोनों ही 40-42 के हो गए। बैंक में शून्य बढ़ता ही गया।

एक नितांत एकांत क्षण में मुझे पुराने दिन याद आये और मौका देख कर उस से कहा "अरे जरा यहाँ आओ, पास बैठो। चलो हाथ में हाथ डालकर कहीं घूम कर आते हैं।" उसने अजीब नज़रों से मुझे देखा और कहा कि "तुम्हें कुछ सूझता भी है यहाँ ढेर सारा काम पड़ा है, तुम्हें बातों की सूझ रही है!" कमर में पल्लू खोंस वह निकल गयी।

फिर आया पैंतालीसवां साल, आँखों पर चश्मा लग गया, बाल के काले रंग साथ छोड़ने लगे, दिमाग में कुछ उलझने शुरू हो गयी। बेटा उधर कॉलेज में था, इधर बैंक में शून्य बढ़ रहे थे। देखते ही देखते उसका कॉलेज ख़त्म हो गया। वह अपने पैरो पर खड़ा हो गया। उसके पंख फूटे और उड़ गया परदेश।

उसके भी बालों का काला रंग उड़ने लगा। कभी-कभी दिमाग साथ छोड़ने लगा। उसे चश्मा भी लग गया। मैं खुद बूढ़ा हो गया। वह भी उम्रदराज लगने लगी। दोनों 55 से 60 की और बढ़ने लगे। बैंक के शून्यों की कोई खबर नहीं। बाहर आने-जाने के कार्यक्रम बंद होने लगे।

अब तो गोली, दवाइयों के दिन और समय निश्चित होने लगे। बच्चे बड़े होंगे तब हम साथ रहेंगे सोच कर लिया गया घर अब बोझ लगने लगा। बच्चे कब वापिस आयेंगे यही सोचते-सोचते बाकी के दिन गुजरने लगे।

एक दिन यूँ ही सोफे पर बैठा ठंडी हवा का आनंद ले रहा था। वो अपनी दीया-बाती कर रही थी। तभी फोन की घंटी बजी। लपक के फोन उठाया। दूसरी तरफ बेटा था। जिसने कहा कि उसने शादी कर ली है और अब वहीं परदेश में ही रहेगा।

उसने ये भी कहा कि पिताजी आपके बैंक के शून्यों को किसी Old Age Home को दे देना। आप भी वही रह लेना। कुछ और औपचारिक बातें कह कर बेटे ने फोन रख दिया।

मैं पुन: सोफे पर आकर बैठ गया। उसकी भी दीया बाती ख़त्म होने को आई थी। मैंने उसे आवाज दी "चलो आज फिर हाथों में हाथ ले कर बात करते हैं!"

वो तुरंत बोली "अभी आई"!

मुझे विश्वास नहीं हुआ। चेहरा ख़ुशी से चमक उठा। आँखें भर आई। आँखों से आंसू गिरने लगे और गाल भीग गए। अचानक आँखों की चमक फीकी पड़ गयी और मैं निस्तेज हो गया। हमेशा के लिए !!

उसने शेष पूजा की और मेरे पास आ कर बैठ गयी "बोलो क्या बोल रहे थे?"

लेकिन मैंने कुछ नहीं कहा। उसने मेरे शरीर को छू कर देखा। शरीर बिलकुल ठंडा पड़ गया था। मैं उसकी और एकटक देख रहा था।

क्षण भर को वो शून्य हो गयी।

"क्या करूं?"

अचानक उसे कुछ समझ में नहीं आया। लेकिन एक दो मिनट में ही वो चैतन्य हो गयी। धीरे से उठी पूजा घर में गयी। एक अगरबत्ती की। ईश्वर को प्रणाम किया। और फिर से आ कर सोफे पर बैठ गयी।

मेरा ठंडा हाथ अपने हाथो में लिया और बोली

"चलो कहाँ घूमने चलना है तुम्हें? क्या बातें करनी हैं तुम्हें?" बोलो !! ऐसा कहते हुए उसकी आँखे भर आई....!!

वो एकटक मुझे देखती रही। आँखों से अश्रु धारा बह निकली। मेरा सर उसके कंधो पर गिर गया। ठंडी हवा का झोंका अब भी चल रहा था।

क्या यही जिन्दगी है?

आपको कैसी लगी यह स्टोरी?

माता-पिता अपनी हैसियत के हिसाब से बच्चों की बेहतर परवरिश करते हैं, उन्हें जीने का सलीका और वो तमाम कौशल सिखाने की पूरी कोशिश तब तक करते हैं जब तक उनके पैर कमज़ोर नहीं हो जाते।

बड़े होने पर लड़कियाँ ब्याह कर औरों के घर भेज दी जातीं हैं और औरों की लड़कियाँ ब्याह कर बहू बना ली जाती हैं। इतना सब करते-करते ही माता-पिता बूढ़े हो जाते हैं, जॉब में हैं तो रिटायर भी।

फिर वही बहू व बेटे के लिए बोझ हो जाते हैं। बुज़ुर्गों के लिए हमारे समाज या सरकार के पास कोई इंतज़ाम नहीं है। बुज़ुर्गों की सुरक्षा व सेहत किसी की भी जिम्मेदारी नहीं है। अक्सर बहू और बेटे के बीच लड़ाई की एक बुनियाद माँ-बाप भी होते हैं। भाई एक से ज़्यादा हुए तो उनमें माँ-बाप की जिम्मेदारी से भागने की लड़ाई भी देखी जाती है जो एक अलग ही मसअला है।

अक्सर मेरे जैसे तमाम साथियों को ये सारे सवाल बहुत परेशान करते हैं कि क्या वाकई बुज़ुर्ग अपने बच्चों के लिए बोझ होते हैं? जो बच्चे एक समय माँ-बाप की जुदाई ज़रा भी देर के लिए बर्दाश्त नहीं कर पाते वही, उन्हीं माँ-बाप से वो क्या सच में बेजार हो जाते हैं? बहू जो अपने माँ-बाप के इन्हीं हालात के लिए रोती है वही कैसे अपने पति के माँ-बाप के लिए निष्ठुर हो जाती है? क्या सच में माँ-बाप परिवार के लिए अनुपयोगी, अनुत्पादक हो जाते हैं? हम यहां इन्हीं सवालों पर विचार करेंगे।

हम ये स्वीकार तो नहीं कर पाते, लेकिन सच्चाई यही है कि आर्थिक सुरक्षा हर तरह की सुरक्षा की गारंटी होती है। आपने देखा होगा कि जो बुज़ुर्ग पेंशनभोगी होते है परिवार में उनकी थोड़ी बेहतर स्थिति होती है बनिस्बत उन बुज़ुर्गों के जिन की कोई आमदनी नहीं होती। यानि बुज़ुर्गों को यहाँ जो सम्मान मिल रहा है वो उनके पैसों के कारण है न कि किसी संस्कार जैसी चीज़ के कारण। आज हर भारतीय परिवार एक-एक पैसे को जोड़ रहा है, अक्सर लोगों के पास घर नहीं होते, होते हैं तो घर का एक-एक कोना कैलकुलेटेड होता है। वहां बुज़ुर्गों के लिए एक कमरे का इंतज़ाम अतिरिक्त खर्चे के रूप में देखा जाता है। कई मामलों में बुज़ुर्ग बे-यारो मददगार गाँव में होते हैं और उनका बेटा शहर में नौकरी करता है। यानि आर्थिक हालात से तय होता है कि किसी परिवार में बुज़ुर्ग की क्या स्थिति होगी।

लेकिन जोधपुर में कुछ अमीर बेटों के लाचार माँ-बाप से मिलने का मौका मिला। इन बुजुर्गों को उनके अमीर बेटे-बहुओं ने बेसहारा छोड़ दिया था। समाज के कुछ जिम्मेदार नागरिक उनकी देखभाल करते थे। अमीर औलादें अपने माँ-बाप को हर सहूलियत उपलब्ध करा सकती हैं भले ही वो उन्हें वक़्त न दे पाएं, ऐसे में ये बात बहुत हैरान करती है कि उन्होंने अपने माँ-बाप को यूं बेसहारा क्यों छोड़ा होगा?

जयपुर में 2016 में एक ऐसे घर में कुछ रोज़ गुज़ारने का मौक़ा मिला जिसके एक हिस्से में एक बुज़ुर्ग रहते थे। वो बड़ी मुश्किल से टॉयलेट तक जा पाते थे, अक्सर तो बिस्तर पर ही पेशाब हो जाता था। उनका बेटा सप्ताह में एक बार आकर उनको नहलाता और कपड़े बदलता था। मेरे मित्र अक्सर बुज़ुर्ग की कुछ मदद कर देते, सफ़ाई तो रोज़ ही करते। जब ये बुज़ुर्ग मर गए तो अंतिम क्रियाओं के तौर पर सभी कार्यक्रम बडे धूमधाम से किया गया। क्या ये प्रेम था? इसी जगह एक घर से किसी के चीखने की आवाज़ आती थी, मित्र से पता करवाया तो मालूम चला कोई बुज़ुर्ग जो मानसिक संतुलन भी खो बैठे हैं, उन्हें उन्हीं की औलादें मारती थीं। ये इलाका शहर का पॉश इलाका कहलाता है, यानी यहाँ थैली से अमीर लोग रहते हैं।

ऐसे ही एक बुज़ुर्ग औरत बिना किसी की मदद के अपने घर में मर गईं, उनका बेटा अपने बच्चों के साथ अमेरिका में था। ऐसे हज़ारों किस्से हैं। लेकिन सवाल वहीं के वहीं है कि जो माँ-बाप एक समय अपने बच्चों के लिए ज़मीन-आसमान एक कर देते थे, वही अपने माँ बाप को बोझ समझ कर कैसे फेंक देते हैं?

धर्म, समाज, नैतिकता सब बुज़ुर्गों की सेवा के लिए प्रेरित करते हैं, लेकिन सेवा या दुत्कार तय होता है पैसों की ताक़त से। अमीर के लिए भी माँ-बाप बोझ लगते हैं क्योंकि उन पर समय और पैसा खर्च होता है। बहू के तौर पर एक स्त्री माँ-बाप का तिरस्कार करती है तो बेटी के तौर पर सम्मान और सेवा, आखिर एक स्त्री इन दो रूपों में कैसे जी पाती है?

एक आवाज़ महिला जगत से उठती है कि बुज़ुर्गों की सेवा बहू ही क्यों करे, बेटा क्यों नहीं। यहां दोनों के पक्ष और विपक्ष में कई तर्क दिए जा सकते हैं, मैं नहीं दूँगा। मेरा बस इतना कहना है कि शादी सिर्फ सेक्स और बच्चे पैदा करने की पार्टनरशिप नहीं है, बल्कि दो लोग दोनों के सुख-दुख और जिम्मेदारियों के साझेदार बनते हैं, अगर ऐसा नहीं है तो फिर शादी की भी क्या ज़रूरत?

जिस घर में बुज़ुर्ग होते हैं, अमूमन बच्चे बहुत सुरक्षित होते हैं। यही नहीं बच्चे बुज़ुर्गों के लिए टॉनिक का काम भी करते हैं। ये मैं अपने अनुभव से कह रहा हूँ, हो सकता है कि आपका अनुभव कुछ अलग हो।

एक अंतिम बात, आज हम जवान हैं तो आने वाले कल में हम बूढ़े भी होंगे। तो फिर क्या उपाय है?

हमें कुछ अवधारणाओं पर शिद्दत से सोचना पड़ेगा, मसलन-

कहा जाता है कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, तो मनुष्य का ज्ञान सामाजिक संपत्ति है, इस ज्ञान का उपयोग सामाजिक/ सामूहिक होना चाहिए। इसी तरह हमारे कौशल, हमारा सृजन समाज की संपत्ति है इसलिए हमारा अर्जन भी सामाजिक व सामूहिक होना चाहिए। अब मुनाफ़े पर आधारित सामाजिक व्यवस्था में सामूहिकता के लिए कोई जगह नहीं है। हमें एक ऐसा समाज बनना चाहिए जिसमें मानव मेधा द्वारा अर्जित सम्पदा समाज की हो, जिसमें बुज़ुर्गों की देखभाल, उनका इलाज और उनका मनोरंजन भी समाज की जिम्मेदारी में हो। ऐसा समाज फिलहाल नहीं है, पर क्या यही समाज हमारी ज़रूरत नहीं है? थोड़ा सोचियेगा!

(डॉ. सलमान अरशद के उस लेख से साभार जो मीडिया विजिल में प्रकाशित हुआ था)

लगभग 6 महीने पहले व्यक्तिगत फ़ेसबुक एकाउंट पर मैंने लिखा था कि -

तब दो चार लोगों ने इसमें थोड़ी दिलचस्पी दिखाई थी, लेकिन बाद में वो भी नहीं दिखी। समझ में नहीं आया कि क्यों आपको इसमें कोई रुचि नहीं है?

कानून के अनुसार, “वरिष्ठ नागरिक” का अर्थ भारत का नागरिक होने के नाते कोई भी व्यक्ति है, जिसने 60 वर्ष या उससे अधिक की आयु प्राप्त कर लिया हो।

2011 की जनगणना के अनुसार, उत्तर प्रदेश में 15.44 मिलियन वरिष्ठ नागरिक हैं, जो पूरे देश में संख्या के मामले में सबसे अधिक है। यह आबादी राज्य की कुल जनसंख्या का 19% तक बढ़ने की उम्मीद है।

वृद्ध लोग किसी भी समाज के लिए एक मूल्यवान संसाधन हैं। बुढ़ापा एक प्राकृतिक घटना है जिसमें अवसर और चुनौतियाँ हैं। 2011 की जनगणना के अनुसार, भारत में 104 मिलियन वृद्ध लोग (60+वर्ष) हैं, जो कुल जनसंख्या का 8.6% है। बुजुर्गों (60+) में महिलाओं की संख्या पुरुषों से अधिक है।

जीवन अवधि में वृद्धि और संयुक्त परिवार का पतन और सामाजिक ताने-बाने का टूटना वरिष्ठों को अकेलेपन और उपेक्षा की ओर ले जाता है। शारीरिक गतिविधि, अच्छा आहार, तंबाकू, शराब और अन्य आदत बनाने वाले पदार्थों से बचने के साथ एक स्वस्थ जीवन की सिफारिश की जाती है। सकारात्मक दृष्टिकोण और मानसिक स्वास्थ्य बढ़ते वर्षों में जीवन की गुणवत्ता को बढ़ावा देते हैं।

वरिष्ठ नागरिकों के जीवन को सुगम बनाने हेतु HELP UPASANA उन्हें मजबूत सामाजिक और स्वस्थ, सुखी, सशक्त गरिमामय और आत्मनिर्भर जीवन प्रदान करने के लिए प्रतिबद्ध है।